उस ने उन से कहा; कि यशायाह ने तुम कपटियों के विषय में बहुत ठीक भविष्यद्ववाणी की; जैसा लिखा है; कि ये लोग होठों से तो मेरा आदर करते हैं, पर उन का मन मुझ से दूर रहता है। (मरकुस ७:६)
आदर होंठों (शब्दों) द्वारा दिया जा सकता है। केवल अगर हमारे होंठ और मन (ह्रदय) सहमत हैं तो यह सच्चा आदर है। सच्ची आराधना मन से आती है।
ये लोग मुझे (लगातार) अपने होंठों से आदर करते हैं, लेकिन उनके मन रोके रखे है और मुझसे बहुत दूर हैं।
यह बहुत संभव है कि हमारी आत्मा (मन) के बिना प्रार्थना की जा सके कि जो यहोवा से जुड़ा हो। प्रार्थना तब एक मात्र अनुष्ठान बन जाती है जो केवल हमारे मानसिक स्तर को संतुष्ट करती है। तो यह कोई आत्मिक विकास नहीं हो रहा है।
यह बहुत संभव है कि हमारी आत्मा (मन) के बिना अन्य भाषा में प्रार्थना करना जो यहोवा से जुड़ा हो। तो यह कोई आत्मिक उन्नति नहीं हो रही है।
यह बहुत संभव है कि हमारी आत्मा (मन) के बिना यहोवा की स्तुति और आराधना की जाए जो यहोवा से जुड़ा हो। यह केवल एक बाहरी दिखावा है जो मनुष्य को प्रभावित करता है।
और ये व्यर्थ मेरी उपासना करते हैं, क्योंकि मनुष्यों की आज्ञाओं को धर्मोपदेश करके सिखाते हैं। (मरकुस ७:७)
प्रभु के वचन में सच्ची उपासना की नींव है।
और ये व्यर्थ (फल रहित और बिना लाभ के) मेरी उपासना करते हैं। (मरकुस ७:७)
उपासना में फलदायी होता है। जीवित प्रभु की उपासना करने में लाभ है।
क्योंकि तुम परमेश्वर की आज्ञा को टालकर मनुष्यों की रीतियों को मानते हो - घड़े और प्याला को धोते है, और कई अन्य ऐसी चीजें जो आप करते हैं। (मरकुस ७:८)
सभी परंपराएं बुरी नहीं हैं। कुछ परंपराएं अच्छी हैं। जब परंपराएँ परमेश्वर के वचन को प्रतिस्थापित (बदलती) करती हैं, तो यह एक खतरनाक मिसाल है।
प्रभु यीशु ने परंपरा की एक साथ निंदा नहीं की। उन्होंने कहा, "क्योंकि तुम परमेश्वर की आज्ञा को टालकर मनुष्यों की रीतियों को मानते हो।"
परंपरा को कभी भी परमेश्वर के वचन को प्रतिस्थापित (बदलना) नहीं करना चाहिए।
परंपरा (रीती रिवाज) क्या है?
यह एक ऐसी चीज है जिसे परमेश्वर ने कभी आज्ञा नहीं दी थी लेकिन यह एक निर्देश (शिक्षण) या प्रथा थी जिसे पीढ़ियों से सौंप दिया गया था।
परंपरा का एक उदाहरण
और उस ने उन से कहा; तुम अपनी रीतियों को मानने के लिये परमेश्वर आज्ञा कैसी अच्छी तरह टाल देते हो! क्योंकि मूसा ने कहा है कि अपने पिता और अपनी माता का आदर कर; ओर जो कोई पिता वा माता को बुरा कहे, वह अवश्य मार डाला जाए। परन्तु तुम कहते हो कि यदि कोई अपने पिता वा माता से कहे, कि जो कुछ तुझे मुझ से लाभ पहुंच सकता था, वह कुरबान अर्थात संकल्प हो चुका। तो तुम उस को उसके पिता वा उस की माता की कुछ सेवा करने नहीं देते। इस प्रकार तुम अपनी रीतियों से, जिन्हें तुम ने ठहराया है, परमेश्वर का वचन टाल देते हो; और ऐसे ऐसे बहुत से काम करते हो। (मरकुस ७:९-१३)
यदि आप प्रभु की सेवा कर रहे हैं तो आपको अपने माता-पिता का आदर करना चाहिए, यह आपको ऐसा करने से छूट नहीं देता है।
कुछ लोग परंपराओं का पालन करते हैं ऐसा करने के बिना मनुष्यों को अपमानित करने के डर से,ऐसा करने पर वे स्वयं परमेश्वर को ठुकरा देते हैं।
उस ने उन से कहा; "क्या तुम भी ऐसे ना समझ हो? क्या तुम नहीं समझते, कि जो वस्तु बाहर से मनुष्य के भीतर जाती है, वह उसे अशुद्ध नहीं कर सकती? क्योंकि वह उसके मन में नहीं, परन्तु पेट में जाती है, और संडास में निकल जाती है यह कहकर उस ने सब भोजन वस्तुओं को शुद्ध ठहराया" (यह कहकर उन्होंने घोषणा की कि परमेश्वर की दृष्टि में हर प्रकार का भोजन स्वीकार्य है)। (मरकुस ७:१८-१९)
भोजन आपको आत्मिक रूप से अशुद्ध नहीं कर सकती है।
भोजन हमें परमेश्वर के निकट नहीं पहुंचाता, यदि हम न खांए, तो हमारी कुछ हानि नहीं, और यदि खाएं, तो कुछ लाभ नहीं। (१ कुरिन्थियों ८:८)
क्योंकि भीतर से अर्थात मनुष्य के मन से (मरकुस ७:२१)
१. बुरी बुरी चिन्ता
२. व्यभिचार
३. पर स्त्रीगमन
४. हत्या
५. चोरी
६. लोभ
७. दुष्टता
८. छल (धोखा)
९. लुचपन
१०. कुदृष्टि (बुरी नजर)
११. निन्दा
१२. अभिमान (गर्व)
१३. मूर्खता।
ये सब बुरी बातें भीतर ही से निकलती हैं और मनुष्य को अशुद्ध करती हैं॥ (मरकुस ७:२३)
उस ने उस से कहा; "इस बात के कारण चली जा; दुष्टात्मा तेरी बेटी में से निकल गई है।" (मरकुस ७:२९)
इसका कहना का मतलब है, आपका अंगीकार आपके छुटकारे को लाएगी।
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